देवबंद का नाम बदलना कितना आसान?

- Author, ज़ुबैर अहमद
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
देवबंद का नाम बदल कर देववृंद कर देना चाहिए. ये प्रस्ताव उत्तर प्रदेश विधानसभा के आने वाले सत्र में रखेंगे शहर से हालिया चुनाव में जीते भारतीय जनता पार्टी के विधायक बृजेश सिंह.
भाजपा के विधायक का ये प्रस्ताव उनके चुनावी वादों का हिस्सा है. ऐसी सलाह पहले भी दी जा चुकी है लेकिन देवबंद के मुसलमानों ने इसे कभी पसंद नहीं किया. इस बार प्रस्ताव में गंभीरता ज़्यादा नज़र आती है.
मामला और भी गंभीर हो सकता है. मुस्लिम समुदाय में कई लोग इस प्रस्ताव को भारत की संस्कृति में मुसलमानों के योगदान को मिटाने की एक कोशिश समझ सकते हैं.

देवबंद का नाम लेते ही सब से पहले जो तस्वीर ज़ेहन में आती है या जो नाम दिमाग़ में आता है वो है इस्लामी संस्था दारुल उलूम का.
देवबंद शहर और दारुल उलूम का चोली-दामन का साथ है. ये दोनों नाम एक ही सांस में लिए जाते हैं. शहर की पूरी खुदरा अर्थव्यवस्था दारुल उलूम पर टिकी है. दुकानें चलाने वाले अक्सर हिन्दू और खरीदार मुस्लमान होते हैं -जिनमें मदरसे के पांच हज़ार विद्यार्थी, उनसे मिलने के लिए आने वाले रिश्तेदार और मेहमान और सैकड़ों शिक्षक शामिल हैं.
देवबंद रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही, ऑटो रिक्शा और रिक्शा वाले "दारुल उलूम, दारुल उलूम" की गुहार लगाकर ग्राहकों को बुलाते हैं
दिल्ली से 160 किलोमीटर दूर देवबंद एक अविकसित शहर है. शहर का मुस्लिम कैरेक्टर दारुल उलूम से ही मिला है जिसपर यहाँ के बहुत सारे हिंदुओं को भी गर्व है.
शहर की पुरानी इमारतें गिर रही हैं और नई इमारतों का निर्माण हो रहा है. यहाँ का मीना बाज़ार हो या कोई और बाज़ार ये आपको 20वीं शताब्दी में वापस ले जाते हैं.

लेकिन देवबंद शहर और दारुल उलूम एक दूसरे में सिमटे रहने के बावजूद एक दूसरे से काफ़ी अलग नज़र आते हैं. ये दो अलग दुनिया हैं. इनका सांस्कृतिक मिलाप नहीं है. इनका सामाजिक मिलाप भी नहीं.
हिन्दू और मुस्लिम अपने-अपने मोहल्लों में रहते हैं. इसके बावजूद वो इस बात पर गर्व करते हैं की दूसरी जगहों की तुलना में यहाँ हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते बेहतर हैं.
देवबंद के दारुल उलूम की स्थापना 1866 में हुई थी. इस मदरसे की स्थापना अंग्रेजों के खिलाफ़ 1857 में हुए ग़दर से जुड़ी है.
भारत की आज़ादी की पहली जंग समझी जाने वाली इस घटना को मुग़ल साम्राज्य के पतन की तरह से देखा जाता है. अंग्रेज़ सरकार ने इस घटना के बाद कई मुस्लिम संस्थाओं को बंद कर दिया था और सैकड़ों इस्लामिक विद्वानों को या तो फांसी पर लटका दिया था या सालों के लिए जेल भेज दिया था.

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ज़िंदा बचे इस्लामिक विद्वानों ने एक साथ मिलकर इस मदरसे की 30 मई 1866 में स्थापना की थी.
ये वो लोग थे जो भारत को ईस्ट इंडिया की सरकार से मुक्ति दिलाना चाहते थे और साथ ही भारत में इस्लाम की पढ़ाई को मिटने से बचाना चाहते थे. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इस मदरसे की भूमिका सराहनीय रही है. यहाँ के उलेमा ने पाकिस्तान का कड़ा विरोध किया था.
स्वतंत्रता की लड़ाई में दारुल उलूम के बलिदान को सभी मानते हैं. लेकिन मदरसे की पहचान इस्लामी शिक्षा से हुई. आज फतवे और धार्मिक सलाह को भारत के अधिकतर मुसलमान मानते हैं.
मदरसे की स्थापना के समय देवबंद एक छोटा सा क़स्बा था. इन दिनों इसकी आबादी एक लाख से अधिक है. लेकिन उस समय ये चंद हज़ार आबादी वाला एक छोटा सा शहर था.
लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि इस मदरसे की स्थापना के लिए देवबंद को ही क्यों चुना गया? क्या इसकी कोई इतिहासिक अहमियत है? इसका जवाब किसी के पास नहीं

दस्तावेज़ों में जो बातें दर्ज हैं वो ये कि देवबंद का नाम दिल्ली सल्तनत के ज़माने में भी लिया जाता था.
तो आखिर इसका नाम देवबंद क्यों पड़ा? इसके नाम से जुड़े जो तर्क हैं वो इस शहर को महाभारत के ज़माने से जोड़ते हैं. एक तर्क ये है कि देवबंद नाम "देवी वन" से बना है. प्राचीन काल में ये जगह वन यानी जंगलों से भरा पड़ी था जहाँ देवी और देवता रहते थे. इस लिए इसे देवी वन कहते थे.
दूसरा तर्क ये है कि देवबंद का पुराना नाम देवी वंदन से लिया गया है. यहाँ दुर्गा की रिहाइश थी. देवरांद धाम भी इसके पुराने नामों में से एक था .
लेकिन पिछले 150 वर्षों से देवबंद का नाम दारुल उलूम से लिया जाता है. ये मदरसा इस्लाम के सुन्नी विचारों का गढ़ है. सुन्नी इस्लाम के हनफ़ी विचार के मानने वाले भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में भारी संख्या में आबाद हैं जिन्हें "देओबंदी" कहा जाता है
मदरसे के अधिकारी देवबंद के नाम बदले जाने के प्रस्ताव पर इस समय कुछ नहीं बोल रहे हैं.
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